प्यार बिन बुलाये कैंसर की तरह है!

प्यार बिना बुलाया कैंसर नहीं है। पहली बात ये कैंसर नहीं है। कैंसर फिर भी इंसान को जीना सीखा सकता है और इंसान जीता है ये जानते हुए कि वो मौत के रास्ते पर जा रहा है। प्यार की गली ये नहीं बताती कि उसका मुँह जहाँ खुलेगा वहाँ ज़िन्दगी मिलेगी या मौत। ये अंधी गली है। जहाँ आगे मौत भी है और ज़िन्दगी भी। प्रेम भाव में आप सबको गले लगा भी लेते हो, अब वो ज़िन्दगी हो या मौत। इस अंधी गली में जाना है तो पहले मन की आँखें ख़ोज लो, वो अँधेरे में भी देख सकती हैं। लेकिन उसे खोजने के लिए तुम्हें ख़ुदको देखना पड़ेगा अंदर से, वो तुमसे होगा नहीं। क्यूँकि तुम्हें इसके लिए पहले ख़ुदको बाहर से जानना होगा। बिना बाहर से जाने तुम अंदर जा ही नहीं सकते। ये जो शरीर है जो नष्ट हो जाएगा, दिन-ब-दिन क्षीण हो रहा है। क़तरा-क़तरा झड़ रहा है। ये क्या है? ये जिसके साथ तुम रात-दिन सो रहे हो, नहा रहे हो, पोषण दे रहे हो, सजा रहे हो, ये शरीर है। इसके व्यवहार करने की सीमा है और एक एक्सपायरी डेट है। जब तक है तब तक उपयोग-दुरुपयोग तुम्हारे हाथ में है। जैसा चाहे कर लो क्योंकि जब ये नष्ट हो जाएगा तब कोई तुमसे ये प्रश्न नहीं पूछेगा कि शरीर था तब क्या किया? लेकिन तुम जो कुछ करोगे वो तुम्हारी चेतना में अवश्य रह जाएगा। इसलिए कुछ ऐसा मत करना कि लौटकर न जा पाओ। तुम यहाँ आये हो, तुम्हें भेजा गया है। तुम्हें ख़ुद अपने मकसद तलाशने और पूरे करने होते हैं। कोई अपना मकसद बना लेता है महल की ईंट रखना और कोई उस महल पर रहना। दोनों मकसद अहम् हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं है। हम सब अपने-अपने मकसद पूरे करके यहाँ से लौटेंगे। कुछ नहीं लौट पाते क्योंकि उनकी चेतना उन्हें यहाँ से जाने नहीं देती। वही तो है जो तुम्हें झूले पर झूलते हुए पेट में नाभि के पास महसूस होती है और किसी से मिलने पर धड़कन में आकर मिल जाती है। धड़कती भी है। फिर तुम्हें तितली जैसा कुछ महसूस होता है, सीने में। वो चेतना तुम्हें लौटने से रोक सकती है। क्योंकि मृत्यु के बाद वही जीवित बचती है। तुम वो चेतना हो। अपनी चेतना को पहचानो और जब उसे पहचान लो तब आँखें बंद कर लो। फिर सबकुछ दिखने लगेगा। एकदम स्पष्ट। जैसे आँखों की पुतलियों के अंदर मौजूद तंतुओं का रंग दिखता है। उतना स्पष्ट दिखेगा। प्रेम की अंधी गली में भी यही आँखें लेकर जाओ। प्रेम में किस बात से डर लगता है तुम्हें? उस बात से जिसे फ़िल्म्स में हद से गुज़र जाना कहते हैं? धोख़े से? बिछड़ने से? दर्द से? आँसुओं से? ये डर तुम्हें नहीं होना चाहिए क्योंकि तुम अपना सर्वस्व दे रहे हो। चोरी करने वाला डरे, कामचोरी करने वाला डरे, बाँट मारने वाला डरे। तुम तो पूरा दे रहे हो इसलिए खुले मन से दो। अन्यथा डरने से कुछ अधूरा छूट जाएगा। आनंद पूरे में है। अधूरे में संतोष रहता है। संतोष मत करो, आनंद लो। याद रखो, एक फ़क़ीर हमेशा आनंद में रहता है क्योंकि उसके पास लूटने को पूरी दुनिया है और लुटाने को अपनी दुआएँ, जो कभी ख़त्म नहीं होतीं। लेकिन एक धन्ना सेठ कभी आनंद में नहीं रहता क्योंकि उसके पास दुनिया की पूरी दौलत कभी नहीं होती और हर पल उसकी ख़ुदकी दौलत लुटने का ख़तरा रहता है। प्यार दुआओं की तरह होता है। असीमित और अंतहीन। जिसे तुम्हारे शरीर से प्रेम होगा वो शरीर से करेगा जिसे तुमसे होगा वो तुमसे करेगा। लेकिन कोई अंदर तभी आ पायेगा जब वो बाहर से तुम्हें जान जाएगा। ईश्वर हमसे प्रेम करता है क्यों? क्योंकि वो हमें जानता है। इसलिए वो सीधे अंतर्मन पर डेरा डाले बैठा रहता है। यहाँ लोग स्वयं को नहीं जानते तो तुम उनसे कैसे उम्मीद लगा लेते हो कि वो तुम्हें जानते हैं, समझते हैं तो तुम्हें तुम्हारे हिसाब से 4 ग्राम प्यार करेंगे या आधा किलो तुम उन्हें प्रेम कर लोगे। इसलिए पहले जानो फिर प्रेम करो। जानना प्रेम नहीं है। प्रक्रिया है। वो शरीर से चेतना तक पहुँचने की यात्रा है। यानि तुमसे तुम तक पहुँचने की यात्रा। इसका आनंद लो। यात्रा में होने वाला कष्ट अनुभव है। ये हर बार नया होगा। ये तुम्हें फ्रेशर से pro तक ले जाएगा। जब pro हो जाओगे तब या तो तुम्हें कष्ट में मज़ा आने लगेगा या फिर तैरते हुए सतह पर पहुँच जाओगे, क्षण भर किनारे भी लग जाओगे। यहाँ से सब तुम्हारे हाथ में है या तो बार-बार ग़ोता लगाओ या फिर किनारा छोड़कर आगे बढ़ जाओ। तब तुम उस पार पहुँचने की यात्रा में शामिल हो जाओगे। इस यात्रा का भी आनंद लेना। 

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